शनिवार, 18 मई 2013

हिस्टोरिकल प्लेस के भ्रमण के पहले क्या करे ?


 लोग सामान्यतः वर्ष में कम से कम एक-दो बार भ्रमण के लिए किसी न किसी दर्शनीय स्थल में जाते ही हैं। उन भ्रमणस्थलों में प्रायः प्राचीन मन्दिरें, गुफाएँ, किले आदि देखने में आते हैं। लोग प्राचीन मन्दिरों, किलों आदि के विशाल भवनों को देखकर खुश तो हो जाते हैं किन्तु उनके विषय में कुछ विशेष जान नहीं पाते, या सही कहा जाए तो जानने का प्रयास ही नहीं करते। हाँ, कुछ लोग इसके लिए गाइड की सेवाएँ अवश्य ले लेते हैं किन्तु उसका परिणाम यह निकलता है कि वे लोग उन भवनों को, अनजाने में ही सही, गाइड के नजरिये से ही देखने लगते हैं, उनका अपना कोई नजरिया नहीं रह जाता। अस्तु, यदि लोग उन स्थानों के बारे में अधिक जानने के उद्देश्य से उन्हें विशेष नजरिये से देखें तो उनके भ्रमण का आनन्द कई गुना बढ़ सकता है। आइये चर्चा करें कि प्राचीन स्मारकों को विशेष नजरिये से कैसे देखा जाए।
गन्तव्य में पहुँचने पर सबसे पहले तो यह देखें कि वहाँ पर किसी प्रकार का बोर्ड लगा है या नहीं। यदि वह स्थान पुरातत्व विभाग के द्वारा सुरक्षित स्थल के अन्तर्गत आता होगा तो अवश्य ही आपको वहाँ पर पुरातत्व विभाग के द्वारा लगया गया उस स्थान की जानकारी देने वाला कोई न कोई बोर्ड अवश्य मिलेगा जिसे पढ़ने से आपको उस स्थान या भवन तथा वहाँ के इतिहास के विषय में कुछ न कुछ विशेष जानकारी अवश्य मिलेगी। उस स्थान के पास की आबादी या बस्ती वाला कोई बन्दा यदि वहाँ पर आपको दिखाई दे तो आप निःसंकोच उससे उस स्थान के विषय में पूछें। आपके पूछने पर वह व्यक्ति उस स्थान से जुड़ी हुई मान्यताएँ, किंवदन्तियाँ आदि के बारे में आपको अवश्य बताएगा जो कि आपको रोचक तो लगेंगी ही, आपका ज्ञानवर्धन भी करेंगी। स्थल को देखते हुए आप यह भी समझने का प्रयास करें कि उसके लिए उसी स्थान का चयन क्यों किया गया होगा, पानी की उपलब्धता सबसे पहली अनिवार्यता होती है इसलिए स्थल से लगा हुआ या आसपास कोई न कोई नदी या नाला अवश्य होगा। प्राचीनकाल में भवन प्रायः पत्थरों से बनते थे इसलिए आसपास पत्थरों की उपलब्धता भी होनी चाहिए। उस स्थान को महत्व कब, क्यों और कैसे मिला, यह जानना भी रोचक होता है। किसी स्थान को यदि आप सिर्फ खण्डहर मान कर देखेंगे तो आपको जरा भी मजा नहीं आएगा पर यदि उसे प्राचीनकाल का अवशेष मान कर देखेंगे तो, विश्वास कीजिए, आपको बहुत ही आनन्द आएगा।
मन्दिरो, चाहे वे प्राचीन हों या वर्तमान काल के, को देखने के पहले उनके बारे में कुछ बातें जान लें तो आपको और भी अधिक आनन्द आएगा। मन्दिर में जहाँ पर भगवान की स्थापना होती है उसे ‘गर्भगृह’ कहा जाता है। गर्भगृह के बाहर भक्तों के लिए जो स्थान होता है उसे ‘मण्डप’ के नाम से जाना जाता है। सामान्यतः मन्दिरों की दीवारों तथा गर्भगृह के प्रवेशद्वार पर प्रतिमाएँ होती हैं, साथ ही कहीं-कहीं पर शिलालेख या ताम्रपत्र भी जड़े रहते हैं। मन्दिर आस्था के केन्द्र एवं अध्यात्म दर्शन की कलात्मक अभिव्यक्ति होने के साथ ही साथ वास्तुकला के अद्वितीय उदाहरण भी होते हैं। इसलिए मन्दिर में जाते समय श्रद्धा-भक्ति तो बनाए रखिये ही पर कला को जानने समझने की उत्सुक्ता को भूल ना जाइये।

प्राचीन मन्दिरों में कई बार ऐसा भी होता है कि हम समझ ही नहीं पाते कि वहाँ किस देवता की मूर्ति है। इसलिए देवताओं की मूर्तियों को पहचानने के लिए कुछ बातें जानना आवश्यक हैं। विष्णु की मूर्ति में चार हाथ बने होते हैं जिनमें वे शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए होते हैं, साथ ही उनका वाहन गरुड़ होता है। विष्णु के लोकप्रिय अवतारों जैसे कि वाराह, वामन, नृसिंह आदि की मूर्तियाँ अपने रूप के कारण आसानी से पहचान ली जाती हैं। इसी प्रकार गणेश जी और हनुमान जी की मूर्तियों को भी पहचानने में कभी कठिनाई नहीं होती। शिव जी की मूर्ति में सामान्यतः जटा, मुकुट, नन्दी, त्रिशूल, डमरू, नाग, खप्पर आदि सम्बद्ध होते हैं। ब्रह्मा जी की मूर्ति चतुर्मुखी तथा दाढ़ी-मूछ युक्त होती है और वे कमण्डलु, पोथी, अक्षमाल, श्रुवा आदि धारण किए होते हैं, उनका वाहन हंस होता है। कार्तिकेय की मूर्ति षटमुखी होती है तथा वे हाथ में शूल और गले में बघनखा धारण किए होते हैं। दुर्गा-पार्वती, महिषमर्दिनी सिंहवाहिनी होती हैं तो गौरी के साथ पंचाग्नि, शिवलिंग और वाहन गोधा प्रदर्शित होता है। सरस्वती, वीणापाणि, पुस्तक लिए, हंसवाहिनी हैं। लक्ष्मी को पद्‌मासना, गजाभिषिक्त प्रदर्शित किया जाता है।

सामान्यतः मन्दिर का मुख पूर्व दिशा की ओर होता है और गर्भगृह से जल निकालने वाली नाली, जिसे कि प्रणाल कहा जाता है, उत्तर दिशा में होती है। प्राचीन मन्दिरों के गर्भगृह के प्रवेशद्वार के दोनों और के स्तम्भों पर प्रायः रूपशाखा की मिथुन मूर्तियाँ, द्वारपाल प्रतिमाएँ एवं मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना होती हैं। प्राचीन प्रतिमाओं में नारी-पुरुष का भेद स्तन से ही संभव होता है, क्योंकि दोनों के वस्त्राभूषण में कोई फर्क नहीं होता। अलग अलग दिशाओं में दिक्पालों की प्रतिमाएँ होती हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार से है -
पूर्व दिशा में – गजवाहन इन्द्र
ईशान (उत्तर-पूर्व) दिशा में – नंदीवाहन ईश
उत्तर दिशा में – नरवाहन कुबेर
वायव्य (उत्तर-पश्चिम) दिशा में – हरिणवाहन वायु
पश्चिम दिशा में – मीन/मकरवाहन वरुण
नैऋत्य दिशा (दक्षिण-पश्चिम) में – शववाहन निऋति
दक्षिण दिशा में – महिषवाहन यम
आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) दिशा में – मेषवाहन अग्नि

तो अब जब कभी भी भ्रमण के लिए जाएँ तो उपरोक्त बातों को अवश्य ही ध्यान में रखें ताकि आपके भ्रमण के आनन्द में वृद्धि हो।                      

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