शनिवार, 27 अक्टूबर 2012

रुद्रप्रयाग - देवताओं का संगम...

      मैंने जब रुद्रप्रयाग की यात्रा का फैसला किया, तो मन में केवल एक ही भाव था - आध्यात्मिक शांति और प्रकृति की गोद में खो जाना। रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड का एक छोटा सा शहर है, लेकिन इसका धार्मिक महत्व बहुत बड़ा है। यह अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों का संगमस्थल है, जो इसे हिंदुओं के लिए एक पवित्र स्थल बनाता है।

श्रीनगर से 34 किलोमीटर की यात्रा के बाद, मैं रुद्रप्रयाग पहुंचा। जैसे ही मैंने दूर से संगम को देखा, मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं। दोनों नदियां इतनी शांति से मिल रही थीं, मानो दो बहनें आपस में गले मिल रही हों। इस दृश्य ने मेरा मन मोह लिया।

रुद्रप्रयाग का धार्मिक महत्व:

रुद्रप्रयाग का नाम भगवान शिव के नाम पर रखा गया है। ऐसा माना जाता है कि यहां संगीत उस्ताद नारद मुनि ने भगवान शिव की उपासना की थी और नारद जी को आर्शीवाद देने के लिए ही भगवान शिव ने रौद्र रूप में अवतार लिया था। यही कारण है कि यहां स्थित शिव और जगदम्बा मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं। मैंने इन मंदिरों में जाकर भगवान शिव और माता जगदंबा का आशीर्वाद लिया।  

रुद्रप्रयाग से केदारनाथ धाम केवल 86 किलोमीटर दूर है। मैंने केदारनाथ धाम की यात्रा का भी प्लान बनाया था। केदारनाथ धाम की यात्रा बहुत ही रोमांचक थी। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य देखकर मैं दंग रह गया।

निष्कर्ष:

रुद्रप्रयाग की यात्रा मेरे लिए एक अविस्मरणीय अनुभव रहा। यहां की शांति और प्राकृतिक सौंदर्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया। अगर आप भी आध्यात्मिक शांति चाहते हैं, तो रुद्रप्रयाग की यात्रा जरूर करें।

कुछ सुझाव:

  • रुद्रप्रयाग की यात्रा के लिए सबसे अच्छा समय अप्रैल से जून और सितंबर से नवंबर के बीच का होता है।
  • यात्रा के दौरान गर्म कपड़े और जूते जरूर ले जाएं।
  • केदारनाथ धाम की यात्रा के लिए आपको परमिट लेना होगा।
  • यात्रा के दौरान स्थानीय लोगों से बातचीत करें और उनकी संस्कृति के बारे में जानें।
अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगमस्थल





गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

देवप्रयाग - जहां मिलती हैं अलकनंदा और भागीरथी...

    देवप्रयाग, उत्तराखंड का वह पवित्र स्थल है, जहां अलकनंदा और भागीरथी नदियों का संगम होता है और गंगा नदी का जन्म होता है। इस यात्रा वृत्तांत में मैं, एक यात्री के रूप में, देवप्रयाग की अपनी यात्रा का अनुभव आपके साथ साझा करूंगा।

ऋषिकेश से देवप्रयाग की यात्रा शुरू करते ही, पहाड़ों की शांत सुंदरता ने मुझे मोहित कर लिया। रास्ते में हरे-भरे पेड़, झरने और छोटे-छोटे गांव मुझे प्रकृति की गोद में ले जाते हुए महसूस हो रहे थे।

देवप्रयाग पहुंचते ही, मुझे एक पवित्र वातावरण महसूस हुआ। अलकनंदा और भागीरथी नदियों का संगम देखकर मैं अचंभित रह गया। दोनों नदियों का मिलन इतना मनमोहक था कि मानो प्रकृति ने यहां एक अद्भुत कलाकृति रची हो। संगम के पास स्थित शिव मंदिर और रघुनाथ मंदिर ने इस स्थान की पवित्रता को और बढ़ा दिया।

शिव मंदिर और रघुनाथ मंदिर

शिव मंदिर में शिवलिंग की पूजा की जाती है और मान्यता है कि यहां शिव जी ने तपस्या की थी। रघुनाथ मंदिर की द्रविड़ शैली की वास्तुकला देखकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। मंदिर के अंदर भगवान राम की मूर्ति विराजमान है।

देवप्रयाग की प्राकृतिक सुंदरता

देवप्रयाग की प्राकृतिक सुंदरता देखकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। यहां के पहाड़, नदियां, झरने और घने जंगल मन को मोह लेते हैं। मैंने देवप्रयाग के आसपास कई छोटे-छोटे ट्रेकिंग रूट्स भी देखे, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये बेहद खूबसूरत हैं।

देवशर्मा और देवप्रयाग

मान्यता है कि देवशर्मा नामक एक तपस्वी ने यहां कड़ी तपस्या की थी, जिनके नाम पर इस स्थान का नाम देवप्रयाग पड़ा। देवप्रयाग को सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है और यहां कौवे नहीं दिखाई देते, जो कि एक आश्चर्य की बात है।

नकषत्र वेधशाला

देवप्रयाग में स्थित नकषत्र वेधशाला एक और आकर्षण का केंद्र है। इस वेधशाला में खगोलशास्त्र संबंधी पुस्तकों का बड़ा भंडार है और यहां देश के विभिन्न भागों से 1677 ई. से अब तक की संग्रह की हुई 3000 विभिन्न संबंधित पांडुलिपियां सहेजी हुई हैं। आधुनिक उपकरणों के अलावा यहां अनेक प्राचीन उपकरण जैसे सूर्य घटी, जल घटी एवं ध्रुव घटी जैसे अनेक यंत्र व उपकरण हैं जो इस क्षेत्र में प्राचीन भारतीय प्रगति व ज्ञान की द्योतक हैं।  

देवप्रयाग के निकट ही सीता विदा नामक एक स्थान है, जहां लक्ष्मण जी ने सीता जी को वन में छोड़ दिया था। सीता जी ने यहां अपने आवास हेतु कुटिया बनायी थी, जिसे अब सीता कुटी या सीता सैंण भी कहा जाता है।

रामायण का संबंध देवप्रयाग से

रामायण में कई बार देवप्रयाग का उल्लेख मिलता है। रामचंद्र जी, सीता जी और लक्ष्मण जी ने यहां तपस्या की थी। देवप्रयाग के उस तीर्थ के समान न तो कोई तीर्थ हुआ और न होगा।

अलकनंदा नदी

अलकनंदा नदी उत्तराखंड के सतोपंथ और भागीरथ कारक हिमनदों से निकलकर इस प्रयाग को पहुंचती है। नदी का प्रमुख जलस्रोत गौमुख में गंगोत्री हिमनद के अंत से तथा कुछ अंश खाटलिंग हिमनद से निकलता है।  

निष्कर्ष

देवप्रयाग की यात्रा मेरे लिए एक अविस्मरणीय अनुभव रहा। इस यात्रा ने मुझे प्रकृति की गोद में ले जाकर शांति और सुकून दिया। देवप्रयाग की पवित्रता और प्राकृतिक सुंदरता ने मुझे मोहित कर लिया। यदि आप भी प्रकृति और धर्म से जुड़ना चाहते हैं, तो देवप्रयाग की यात्रा आपके लिए एक बेहतरीन विकल्प हो सकती है।

कुछ सुझाव

  • देवप्रयाग जाने का सबसे अच्छा समय मार्च से जून तक होता है।
  • देवप्रयाग में ठहरने के लिए कई होटल और गेस्ट हाउस उपलब्ध हैं।
  • देवप्रयाग के आसपास कई छोटे-छोटे ट्रेकिंग रूट्स हैं, जिनका आनंद आप ले सकते हैं।
  • देवप्रयाग में स्थानीय भोजन का स्वाद जरूर लें।
  • देवप्रयाग की यात्रा के दौरान पर्यावरण का ध्यान रखें और कूड़ा न फेंके।

                                                         प्रवीण जी / घुमन्‍तु बाबा



अलकनंदा तथा भागीरथी नदियों के संगम  


बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

मंदार पर्वत – इतिहास, आस्था और प्राकृतिक सौंदर्य का संगम...

मई 2011 की एक तपती दोपहर थी, जब मैं अपने जलछाजन प्रोजेक्ट के फील्ड एग्ज़ामिनेशन के सिलसिले में बिहार के बाँका जिले की ओर रवाना हुआ। गंतव्य था – मंदार पर्वत। उस समय मेरे मन में यह केवल एक परीक्षा स्थल भर था, लेकिन जैसे-जैसे मैं वहाँ पहुँचा, यह स्थान एक परीक्षा केंद्र से बदलकर मेरे जीवन के सबसे अनोखे अनुभवों में से एक बन गया।

पहली झलक – दूर से दिखता पर्वत का वैभव

भागलपुर मंडल से दक्षिण की ओर लगभग 45 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अचानक क्षितिज पर एक ऊँचा-सा पहाड़ उभर आया। यह था मंदार पर्वत, लगभग 700 फीट ऊँचा, चारों ओर हरियाली और नीचे फैला शांत ग्रामीण परिवेश। गाड़ी से उतरते ही पहाड़ से आती ठंडी हवा और आसपास का प्राकृतिक नज़ारा मुझे किसी पौराणिक चित्रकथा का हिस्सा महसूस कराने लगा।


पौराणिक महत्व – समुद्र मंथन की अमर गाथा

मंदार पर्वत सिर्फ एक पहाड़ नहीं, बल्कि हजारों साल पुरानी धार्मिक मान्यताओं का जीता-जागता प्रतीक है। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत को मंथन दंड के रूप में इस्तेमाल किया गया था।

  • देवता और असुर अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन कर रहे थे।

  • वासुकी नाग रस्सी की तरह लिपटा था, और मंदराचल पर्वत को मंथन के केंद्र में रखा गया।

  • मंथन से अमृत और अनेक रत्न प्राप्त हुए, जो आज भी पुराणों में वर्णित हैं।

मंदार पर्वत को भगवान विष्णु का पवित्र आश्रय स्थल भी माना जाता है। मान्यता है कि यहाँ भगवान ने अनेक बार अवतार लेकर धर्म की रक्षा की।


जैन धर्म में मंदार का महत्व

जैन धर्म के अनुयायियों के लिए भी मंदार पर्वत अत्यंत पवित्र है। यहाँ बारहवें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य ने दीक्षा और कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। पहाड़ी की चोटी पर स्थित जैन मंदिर उनकी स्मृति में बना हुआ है।


पापहरनी तालाब – पवित्र स्नानस्थल

पर्वत के समीप स्थित पापहरनी तालाब स्थानीय और बाहरी दोनों ही श्रद्धालुओं के लिए विशेष महत्व रखता है।

  • कहा जाता है कि इसमें स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मानसिक-शारीरिक स्फूर्ति मिलती है।

  • तालाब के मध्य में भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का मंदिर स्थित है।

  • तालाब का नीला, निर्मल जल और चारों ओर की हरियाली अद्भुत दृश्य बनाते हैं।

मई की गर्मी में भी तालाब के पास खड़े रहना मन को ठंडक देता है।


आदिवासी संस्कृति और मकर संक्रांति मेला

मंदार पर्वत केवल धार्मिक केंद्र ही नहीं, बल्कि आदिवासी संस्कृति का भी गढ़ है। यहाँ के संथाल आदिवासी इस क्षेत्र को सिद्धि क्षेत्र मानते हैं।

  • मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व, पूरी रात सिद्धि पूजा का आयोजन होता है।

  • मकर संक्रांति के दिन यहाँ सबसे बड़ा संताली मेला लगता है।

  • लाखों श्रद्धालु और पर्यटक इस मेले में भाग लेने आते हैं।

  • मेले में लोकनृत्य, पारंपरिक गीत और हस्तशिल्प वस्तुएँ देखने लायक होती हैं।


प्राकृतिक सौंदर्य और पुरातात्विक धरोहर

मंदार पर्वत की सबसे अद्भुत बात है इसका प्राकृतिक सौंदर्य और ऐतिहासिक अवशेषों का संगम

  • पर्वत की चट्टानों पर बनी प्राचीन मूर्तियाँ, गुफाएँ और ध्वस्त चैत्य।

  • चट्टानों पर समुद्र मंथन से जुड़ी आकृतियाँ और शिलालेख।

  • आस-पास फैली हरियाली और पक्षियों की चहचहाहट, जो माहौल को जीवंत बनाती है।

जब मैं मई 2011 में यहाँ पहुँचा था, तो मेरे जलचजन प्रोजेक्ट की साइट तालाब के पास ही थी। काम के दौरान भी मेरी नज़र बार-बार उस ऐतिहासिक और पवित्र पर्वत की ओर चली जाती थी।


मेरा अनुभव – एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक यात्रा

परीक्षा के सिलसिले में पहुँचना था, लेकिन यह यात्रा एक आध्यात्मिक अनुभव में बदल गई।

  • तालाब किनारे बैठकर घंटों पानी के प्रवाह और आसपास के दृश्यों को निहारना।

  • मंदिर में बजते घंटे और मंत्रोच्चार से मन में अजीब-सी शांति महसूस होना।

  • स्थानीय लोगों से बातचीत में उनकी सरलता और संस्कृति का परिचय मिलना।

शाम होते-होते पहाड़ पर पड़ती सुनहरी धूप का दृश्य अविस्मरणीय था।


मंदार पर्वत की यात्रा टिप्स

कब जाएँ

  • सबसे अच्छा समय मकर संक्रांति (जनवरी) के आसपास है, जब मेला लगता है।

  • हालांकि, अगर भीड़ से बचना चाहें तो अक्टूबर से मार्च के बीच जाएँ।

क्या लेकर जाएँ

  • पानी की बोतल, टोपी और सनस्क्रीन (धूप से बचाव के लिए)।

  • कैमरा (यहाँ के दृश्य और मूर्तियाँ कैद करने लायक हैं)।

कहाँ ठहरें

  • बाँका या भागलपुर में होटल और गेस्ट हाउस उपलब्ध हैं।

  • स्थानीय धर्मशालाओं में भी ठहर सकते हैं।

क्या खाएँ

  • स्थानीय व्यंजन जैसे लिट्टी-चोखा, धूसका, और मौसमी मिठाइयाँ जरूर चखें।


निष्कर्ष – मंदार पर्वत क्यों खास है?

मंदार पर्वत केवल एक ऐतिहासिक स्थल नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और प्रकृति का अनूठा संगम है। यहाँ आपको

  • पौराणिक कथाओं का जीवंत अनुभव मिलेगा,

  • आदिवासी संस्कृति की झलक मिलेगी,

  • और प्रकृति की गोद में सुकून के पल मिलेंगे।

मई 2011 की वह यात्रा मेरे लिए सिर्फ एक  प्रोजेक्ट की फील्ड वर्क नहीं थी, बल्कि जीवन में मिले उन अनमोल अनुभवों में से एक थी, जो मन को बार-बार उस जगह की ओर खींच लाती है।



पापहरनी तालाब: यह मंदार पर्वत के निकट स्थित है और इसे विशेष धार्मिक महत्व दिया जाता है।

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

.ओरछा: बुंदेलखंड की धरोहर और इतिहास का जीवंत अध्याय...

जून 2013, मैं एसएससी की परीक्षा देने झांसी गया था। परीक्षा के बाद मेरे पास थोड़ा समय था, और इसी दौरान मुझे बुंदेलखंड के हृदय में बसे एक अद्भुत नगर — ओरछा — जाने का मौका मिला। झांसी से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह नगर मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित है। नाम सुनते ही मेरे मन में इतिहास, महलों और मंदिरों की छवियां उभर आईं। स्थानीय लोगों ने जब इसके बारे में विस्तार से बताया, तो उत्सुकता और बढ़ गई। कहते हैं, ओरछा वह स्थान है, जहां समय ठहर-सा जाता है और अतीत की कहानियां फुसफुसाने लगता है।


ओरछा की स्थापना और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

ओरछा की स्थापना 16वीं शताब्दी में बुंदेला राजवंश के संस्थापक रुद्र प्रताप सिंह ने की थी। उस समय यह नगर न केवल बुंदेलखंड का राजनीतिक केंद्र था, बल्कि संस्कृति और कला का गढ़ भी बन चुका था। रुद्र प्रताप सिंह ने बेतवा नदी के किनारे इस नगर को बसाया और इसे एक मजबूत किले के रूप में विकसित किया।

बुंदेला शासकों के स्वर्णकाल में ओरछा ने अद्भुत प्रगति की। कला, स्थापत्य और संस्कृति के क्षेत्र में यहां की पहचान पूरे उत्तर भारत में फैल गई। मुगल सम्राट अकबर और बाद में जहांगीर के साथ बुंदेला शासकों के सौहार्दपूर्ण संबंधों ने भी यहां के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


बुंदेला और मुगल वास्तुकला का संगम

ओरछा की सबसे बड़ी विशेषता इसकी वास्तुकला है, जो बुंदेला और मुगल शैली का अद्भुत मिश्रण है। यहां की इमारतें ऊंची मीनारों, झरोखों, मेहराबों और जटिल नक्काशी से सजी हुई हैं। जब आप यहां के महलों में घूमते हैं, तो लगता है जैसे हर पत्थर अतीत की गाथा सुना रहा हो।


1. राम राजा मंदिर

ओरछा का सबसे प्रमुख धार्मिक स्थल। यह भारत का एकमात्र मंदिर है, जहां भगवान राम को राजा के रूप में पूजा जाता है। मान्यता है कि अयोध्या से लाए गए श्रीराम की मूर्ति को यहां स्थापित करने के बाद वह स्थायी हो गई, और तभी से उन्हें राजा के रूप में पूजा जाने लगा। मंदिर की वास्तुकला में हिंदू और मुस्लिम दोनों शैलियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है।

2. जहांगीर महल

ओरछा के किले परिसर में स्थित यह महल मुगल सम्राट जहांगीर के स्वागत के लिए बनाया गया था। विशाल आंगन, संगमरमर की नक्काशी, और छतरियां इस महल को भव्यता प्रदान करती हैं। यहां खड़े होकर बेतवा नदी और पूरे नगर का मनोहारी दृश्य देखा जा सकता है।

3. राज महल

यह बुंदेला राजाओं का मुख्य निवास स्थान था। महल की दीवारों और छतों पर भगवान राम, कृष्ण और विभिन्न पौराणिक कथाओं के सुंदर भित्तिचित्र बनाए गए हैं। रंगों की चमक आज भी वैसी ही है, जैसे सदियों पहले रही होगी।

4. शीश महल

राज महल के समीप स्थित यह महल अब एक हेरिटेज होटल के रूप में परिवर्तित हो चुका है। यहां रहने का अनुभव आपको राजा-महाराजाओं के समय में ले जाएगा।


ओरछा की किंवदंतियां और लोककथाएं

ओरछा की पहचान केवल महलों और मंदिरों से नहीं है, बल्कि यहां की कहानियां भी उतनी ही प्रसिद्ध हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय है हरदौल की कथा।

हरदौल की कहानी:
कहते हैं कि जुझार सिंह के छोटे भाई हरदौल की सच्चाई और त्याग के किस्से आज भी यहां गाए जाते हैं। आरोप लगने के बावजूद उन्होंने अपनी भाभी के सम्मान की रक्षा की और अपने प्राण त्याग दिए। आज भी ओरछा में लोग किसी शुभ कार्य की शुरुआत हरदौल के नाम से करते हैं।


ओरछा का सांस्कृतिक महत्व

ओरछा धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों का केंद्र है। यहां का राम नवमी उत्सव खास तौर पर प्रसिद्ध है, जब लाखों श्रद्धालु दूर-दूर से यहां आते हैं। इस दिन राम राजा मंदिर में विशेष पूजा और शोभायात्रा का आयोजन होता है।

इसके अलावा, ओरछा का बेतवा महोत्सव भी लोकप्रिय है, जिसमें संगीत, नृत्य और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। यह शहर अपने लोकगीतों और लोकनृत्यों के लिए भी जाना जाता है, जो बुंदेलखंड की मिट्टी की खुशबू को दर्शाते हैं।


प्राकृतिक सौंदर्य और शांत वातावरण

ओरछा का आकर्षण केवल ऐतिहासिक धरोहरों में ही नहीं है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता भी दिल को छू जाती है। बेतवा नदी के किनारे बसा यह नगर हरियाली और शांति का अद्भुत संगम है। नदी किनारे बने चत्रियां (समाधि स्थल) सूर्यास्त के समय सुनहरी आभा से दमक उठती हैं।

नदी के किनारे बैठकर बहते पानी की आवाज़ सुनना, पक्षियों की चहचहाहट महसूस करना, और महलों के बीच ठंडी हवाओं का स्पर्श… यह अनुभव आपको शहर की भागदौड़ से दूर एक नई दुनिया में ले जाता है।


ओरछा की यात्रा का मेरा अनुभव

झांसी से मैंने एक स्थानीय वाहन पकड़ा और कुछ ही समय में ओरछा पहुंच गया। प्रवेश करते ही किले की ऊंची दीवारें और बुर्ज दिखाई देने लगे। संकरी गलियों से गुजरते हुए मैंने देखा कि यहां के लोग आज भी पारंपरिक जीवनशैली अपनाए हुए हैं।

सबसे पहले मैं राम राजा मंदिर गया। मंदिर में घण्टियों की गूंज और भजन की ध्वनि ने एक अद्भुत आध्यात्मिक वातावरण बना दिया। फिर मैंने जहांगीर महल और राज महल का भ्रमण किया। इन महलों में घूमते हुए ऐसा लगा जैसे मैं समय में पीछे चला गया हूं।

शाम को मैं बेतवा नदी किनारे पहुंचा। सूर्यास्त के समय चत्रियों पर पड़ती सुनहरी किरणें मन मोह लेने वाली थीं। यह दृश्य शायद मैं जीवन भर न भूल पाऊं।


ओरछा क्यों जाएं?

  • मध्यकालीन भारत की झलक पाने के लिए: यहां का हर कोना आपको इतिहास की कहानी सुनाता है।

  • भव्य वास्तुकला देखने के लिए: बुंदेला और मुगल शैली का संगम।

  • लोककथाओं और किंवदंतियों का आनंद लेने के लिए: हरदौल और राम राजा मंदिर की कथाएं।

  • शांत वातावरण में समय बिताने के लिए: बेतवा नदी के किनारे का सुकून।

  • स्थानीय संस्कृति और त्योहारों का अनुभव करने के लिए: राम नवमी और बेतवा महोत्सव।


यात्रा से जुड़े कुछ सुझाव

  1. सर्दी या बसंत का मौसम (अक्टूबर से मार्च) यात्रा के लिए सबसे उपयुक्त है।

  2. झांसी से आसानी से टैक्सी या बस द्वारा पहुंचा जा सकता है।

  3. यहां ठहरने के लिए बजट से लेकर हेरिटेज होटल तक कई विकल्प मौजूद हैं।

  4. स्थानीय व्यंजन जैसे बुंदेली थाली का स्वाद जरूर लें।


निष्कर्ष

ओरछा एक ऐसा स्थान है जहां इतिहास, संस्कृति, कला और प्रकृति एक साथ सांस लेते हैं। यहां की हवा में अतीत की खुशबू है, मंदिरों में आस्था की गूंज है, और गलियों में बुंदेलखंड की आत्मा बसी है।

मेरे लिए यह यात्रा केवल एक पर्यटन अनुभव नहीं थी, बल्कि यह अतीत से जुड़ने का एक माध्यम बनी। यदि आप भी भारत की ऐतिहासिक विरासत, लोककथाओं और प्राकृतिक सौंदर्य का अनुभव करना चाहते हैं, तो ओरछा की यात्रा जरूर करें।



Temple in orcha


Ghajir Mahal in Orcha

praveej ji orcha may Dabang style may 




सोमवार, 4 जून 2012

पुरी -: समुद्र, धर्म और आध्यात्म का संगम...

भारत के पूर्वी तट पर बसा पुरी, उड़ीसा (अब ओडिशा) का वह मोती है जो अपने भीतर धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सौंदर्य का अनोखा संगम समेटे हुए है। यह शहर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि अनुभवों का खजाना है—जहां एक ओर जगन्नाथ मंदिर की घंटियों की गूंज है, तो दूसरी ओर समुद्र की लहरों का अनवरत संगीत।

मैं मई 2013 में पुरी गया था, और आज भी उस यात्रा की हर याद मेरे दिल में ताज़ा है। उस समय का मौसम गर्म जरूर था, लेकिन समुद्र की ठंडी हवाओं और पुरी के लोगों की आत्मीयता ने इसे बेहद सुखद बना दिया।


समुद्र का पहला दीदार: पुरी बीच की जादुई सुबह

पुरी पहुंचने के बाद मेरी सबसे पहली इच्छा थी—समुद्र देखने की। स्टेशन से होटल तक का रास्ता जैसे-जैसे समुद्र के करीब आता गया, हवा में नमक की हल्की महक और लहरों की गूंज सुनाई देने लगी।

सुबह-सुबह जब मैं पुरी बीच पर पहुंचा, तो सूरज लाल-गुलाबी रंग में समुद्र की गोद से उग रहा था। लहरें जैसे सूरज का स्वागत कर रही हों। पैरों के नीचे मुलायम रेत, सामने असीम जलराशि, और किनारे बैठी नावें—यह दृश्य किसी चित्रकार की पेंटिंग से कम नहीं था।

लेकिन यहां एक बात का ध्यान रखना जरूरी है—पुरी का समुद्र खूबसूरत जरूर है, लेकिन इसकी लहरें तेज होती हैं। मैंने भी बस पैरों तक पानी आने दिया और दूर से ही इस प्राकृतिक संगीत का आनंद लिया।


जगन्नाथ मंदिर: आस्था का केंद्र

पुरी की पहचान उसके जगन्नाथ मंदिर से है। यह मंदिर न केवल ओडिशा बल्कि पूरे भारत के हिंदुओं के लिए आस्था का केंद्र है। चार धामों में से एक यह मंदिर अपनी विशालता और पवित्रता के लिए प्रसिद्ध है।

मंदिर का वास्तुशिल्प अद्भुत है—ऊंची-ऊंची दीवारें, विशाल शिखर और अंदर की भव्यता मन मोह लेती है। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां विराजमान हैं।

मैंने जब पहली बार मंदिर में प्रवेश किया, तो एक अलग ही ऊर्जा महसूस हुई। घंटियों की गूंज, मंत्रोच्चारण और प्रसाद की सुगंध—सब मिलकर मन को शांति और सुकून देने वाला वातावरण बना रहे थे।


रथयात्रा का अद्भुत नजारा

मेरे मई 2013 के दौरे के समय रथयात्रा तो नहीं थी, लेकिन वहां के लोगों ने मुझे इसके किस्से सुनाए। बाद में जब मैंने पुरी में रथयात्रा देखी, तो वह अनुभव जीवन भर के लिए यादगार बन गया।

रथयात्रा के दिन लाखों श्रद्धालु सड़कों पर उमड़ पड़ते हैं। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की विशाल मूर्तियों को सजाए हुए रथों पर बिठाकर शहर में घुमाया जाता है। इन रथों को खींचने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं, और इसे एक पुण्य का कार्य माना जाता है।


गुंडिचा मंदिर: रथयात्रा का विश्राम स्थल

जगन्नाथ मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर का महत्व रथयात्रा से जुड़ा है। यहीं भगवान के रथ कुछ दिनों के लिए ठहरते हैं। मैंने मई 2013 में इसे बाहर से देखा था, लेकिन रथयात्रा के समय यह मंदिर जीवन से भर उठता है।


आनंद बाजार और पुरी के स्वाद

पुरी का आनंद बाजार नाम के अनुरूप वाकई आनंद देने वाला स्थान है। यहां आपको स्थानीय हस्तशिल्प, रंग-बिरंगे कपड़े, और खासकर पुरी का प्रसिद्ध ‘खाजा’ मिठाई मिलेगी। यह कुरकुरी, मीठी और मुंह में जाते ही घुल जाने वाली मिठाई मैंने कई बार खरीदी और सफर में साथ ले आया।

यहां की गलियों में ताजा समुद्री मछली, उड़ीसा की पारंपरिक दालमा, और नारियल पानी का स्वाद गर्मी में जैसे अमृत लगता था।


पुरी बीच: शाम का रोमांस

पुरी बीच की शाम अपने आप में एक उत्सव होती है। डूबते सूरज की लालिमा समुद्र के पानी में सोने-सी चमक बिखेर देती है। बच्चे रेत के घर बनाते हैं, नवविवाहित जोड़े समुद्र किनारे टहलते हैं, और व्यापारी रंग-बिरंगे गुब्बारे और चाट-पकौड़ी बेचते हैं।

मैं भी एक शाम रेत पर बैठा, लहरों को देखता रहा। ऐसा लगा जैसे समय थम गया हो।


यात्रा की योजना और सुझाव

पुरी पहुंचने के लिए रेल, बस और हवाई—तीनों सुविधाएं उपलब्ध हैं। भुवनेश्वर हवाई अड्डा पुरी से लगभग 60 किलोमीटर दूर है। वहां से टैक्सी या बस आसानी से मिल जाती है।

मेरा सुझाव है कि पुरी घूमने का सबसे अच्छा समय सर्दियों का मौसम (नवंबर से फरवरी) है। मई-जून में गर्मी थोड़ी ज्यादा होती है, लेकिन समुद्र का आनंद तब भी लिया जा सकता है।

ठहरने के लिए यहां सस्ते गेस्ट हाउस से लेकर लग्जरी होटल तक सब उपलब्ध हैं। अगर आप समुद्र के नजदीक रहना चाहते हैं, तो बीच रोड के पास होटल चुनें।


मई 2013 की मेरी यादें

मेरे लिए मई 2013 की पुरी यात्रा सिर्फ एक धार्मिक सफर नहीं, बल्कि मन और आत्मा को छू लेने वाला अनुभव था। गर्म धूप के बावजूद समुद्र की ठंडी हवा, मंदिर की भव्यता, लोगों की मेहमाननवाजी, और उड़ीसा के व्यंजनों का स्वाद—सब कुछ जैसे एक रंगीन कोलाज में सजा हुआ था।

पुरी ने मुझे सिखाया कि यात्रा सिर्फ जगह बदलना नहीं है, बल्कि अनुभवों, भावनाओं और कहानियों का संग्रह है। जब भी मैं उस सफर को याद करता हूं, तो लहरों की आवाज़ और मंदिर की घंटियां जैसे कानों में गूंज उठती हैं।


निष्कर्ष: पुरी—जहां हर कदम एक कहानी कहता है

पुरी ऐसा शहर है जहां आप एक ही जगह धर्म, संस्कृति, इतिहास और प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद ले सकते हैं। यह सिर्फ एक यात्रा नहीं, बल्कि आत्मिक शांति और जीवन की नई दृष्टि देने वाला अनुभव है।

अगर आप भी ऐसी जगह की तलाश में हैं, जहां समुद्र की लहरें आपके मन का सारा बोझ धो दें और मंदिर की घंटियां आपको भीतर तक सुकून दें, तो पुरी आपके लिए एक आदर्श गंतव्य है।





पूरी का समुन्‍द्र तट पे नहाने का मजा ही कुछ और है 


पुरी में नारियल 5 रू में मिलता है इसका मजा जरूर ले 

प्रवीण जी भागों वरना समुन्‍द्र आप को अपने पास बुला लेगा 

प्रवीण जी समुनद्र को निहारते हुए 

मजा आ गया इसे देख कर 



कोणार्क का सूर्य मंदिर: विश्व धरोहर और कला का उत्कृष्ट नमूना...


मई 2013 की वह सुबह आज भी मेरी स्मृतियों में ताज़ा है। उड़ीसा की यात्रा का मेरा यह तीसरा दिन था, और दिल में एक ही मंज़िल गूंज रही थी – कोणार्क सूर्य मंदिर। बचपन से किताबों, डाक टिकटों और पोस्टरों में इस मंदिर का भव्य रथ देखा था, पर उसे अपनी आंखों से देखने की कल्पना ही रोमांच से भर दे रही थी।

ट्रेन और फिर सड़क यात्रा के दौरान, आसमान में चमकते सूरज को देखते हुए मन में बार-बार यह ख्याल आता – मैं उस स्थान की ओर बढ़ रहा हूँ, जहाँ सदियों पहले कारीगरों ने पत्थरों में खुद सूर्य का रथ उतार दिया था।


पहली झलक – सांसें थाम देने वाला नज़ारा

जैसे ही मंदिर के करीब पहुँचा, सामने जो दृश्य था, उसने सचमुच मुझे कुछ क्षणों के लिए स्थिर कर दिया। दूर से ही दिखाई देता विशाल पत्थर का रथ, सात पत्थर के घोड़े, और बारह विशाल पहिए – ऐसा लग रहा था मानो सूर्य देव अभी किसी भी पल इस रथ पर सवार होकर निकल पड़ेंगे।

मंदिर के आस-पास समुद्री हवा में हल्की नमी थी, और सूरज की किरणें जब उन नक्काशियों पर पड़ रही थीं, तो पत्थर जैसे सुनहरी आभा में नहा उठे थे।


इतिहास – गंग वंश का गौरव

कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण 13वीं शताब्दी में गंग वंश के राजा नृसिंहदेव प्रथम ने कराया था। यह सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि स्थापत्य, विज्ञान और कला का ऐसा संगम है, जिसे देखकर आज भी विशेषज्ञ हैरान रह जाते हैं।

  • इसे समुद्र तट के पास इस तरह बनाया गया कि सुबह का सूरज सीधे गर्भगृह में प्रवेश करे।

  • यह मंदिर कलिंग वास्तुकला शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें बारीक नक्काशी और भव्य संरचना प्रमुख हैं।


मंदिर की अद्भुत खूबियां

सूर्य देव का रथ

मंदिर को सूर्य देव के रथ के रूप में डिजाइन किया गया है।

  • सात घोड़े – सप्ताह के सात दिनों का प्रतीक।

  • बारह पहिए – वर्ष के बारह महीने।

  • हर पहिए में आठ अर (spokes) – दिन के आठ पहरों का संकेत।

जब मैंने इन पहियों के पास खड़े होकर उन्हें छुआ, तो ऐसा लगा जैसे ये पत्थर समय की धड़कन को अपने अंदर समेटे हुए हैं।


पत्थरों में जीवन – अद्भुत नक्काशी

मंदिर की दीवारों और स्तंभों पर इतनी बारीक नक्काशी है कि हर आकृति में जान सी महसूस होती है।

  • देवी-देवताओं के चित्र

  • राजसी जुलूस और युद्ध दृश्य

  • नर्तकियों की सुंदर मुद्राएँ

  • जानवर, पक्षी और फूल-पत्तियाँ

इन नक्काशियों को देखते हुए समय कब बीत गया, पता ही नहीं चला।


कामसूत्र की मूर्तियाँ – संस्कृति की खुली सोच

मंदिर के कई हिस्सों में कामसूत्र से प्रेरित मूर्तियाँ हैं। ये सिर्फ शारीरिक भावनाओं का चित्रण नहीं, बल्कि उस युग की स्वतंत्र और खुली सोच का प्रतीक हैं।


सूर्य देव की तीन अवस्थाएँ

मंदिर में सूर्य देव की तीन भव्य मूर्तियाँ हैं:

  1. बाल्यावस्था – उगते सूरज की ऊर्जा।

  2. युवावस्था – दोपहर के तेजस्वी सूर्य की चमक।

  3. प्रौढ़ावस्था – ढलते सूरज की गरिमा।


नट मंदिर – कला का केंद्र

मुख्य मंदिर के पास नट मंदिर है, जहाँ नृत्य और संगीत की प्रस्तुतियाँ होती थीं। मैं वहाँ खड़ा था और कल्पना कर रहा था कि कैसे सैकड़ों साल पहले यहाँ वीणा, मृदंग और घुंघरुओं की धुनें गूंजती होंगी।


विश्व धरोहर का गौरव

1984 में यूनेस्को ने कोणार्क सूर्य मंदिर को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। यह भारत की सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत का अमूल्य हिस्सा है।


मई 2013 – मेरी यात्रा के खास पल

जब मैंने मंदिर के प्रांगण में कदम रखा, तो लगा जैसे मैं समय के किसी सुरंग से होकर 700 साल पीछे चला गया हूँ।

  • सुबह की ठंडी हवा – हल्के बादलों के बीच से आती धूप और समुद्र की नमी भरी खुशबू।

  • भीड़ में अलग-अलग भाषाएँ – बंगाली, उड़िया, हिंदी, अंग्रेज़ी – हर कोई अपनी तरह से इस अद्भुत कृति की प्रशंसा कर रहा था।

  • शांति का अनुभव – जब भीड़ से दूर मंदिर की एक दीवार के पास खड़ा हुआ, तो पत्थरों से आती एक अनकही कहानी महसूस हुई।

मैंने हर पहिए, हर नक्काशी को ध्यान से देखा, और सोचा – इतने विशाल और जटिल निर्माण के लिए न तो उस समय आधुनिक मशीनें थीं, न तकनीक। यह तो सिर्फ मानव की कल्पना, मेहनत और समर्पण का चमत्कार है।


यात्रियों के लिए सुझाव

  • सबसे अच्छा समय – सुबह 6 से 9 बजे या शाम 4 से 6 बजे।

  • फोटोग्राफी नियम – गर्भगृह के अंदर फोटोग्राफी मना है।

  • स्थानीय बाज़ार – मंदिर के पास पत्थर की नक्काशी, लकड़ी की कलाकृतियाँ और पारंपरिक कपड़े मिलते हैं।

  • रहना और खाना – कोणार्क और पुरी में अच्छे होटल व रेस्टोरेंट हैं। ‘चेनापोड़ा’ मिठाई जरूर चखें।


निष्कर्ष – पत्थरों में बंद समय की कहानियाँ

कोणार्क सूर्य मंदिर सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि समय और कला का जीवित संग्रहालय है। हर पत्थर, हर पहिया और हर नक्काशी किसी बीते युग की कहानी कहती है।

मई 2013 की मेरी वह यात्रा आज भी मेरे दिल में ताज़ा है। जब भी याद आती है, मन फिर उसी धूप, उसी हवा और उसी अद्भुत पत्थर के रथ के पास लौट जाता है। अगर आप कभी उड़ीसा जाएँ, तो कोणार्क सूर्य मंदिर को अपनी सूची में सबसे ऊपर रखें – क्योंकि यहाँ जाने के बाद आप पहले जैसे नहीं रहेंगे।