साल 2013… उत्तराखंड की धरती ने एक ऐसी त्रासदी देखी, जिसे आने वाली पीढ़ियां भी याद रखेंगी। जून में आई भीषण बाढ़ और भूस्खलन ने देवभूमि केदारनाथ को तहस-नहस कर दिया। चारों ओर तबाही के निशान, टूटे घर, बह चुकी दुकानें, और मलबे के ढेर… लेकिन इन सबके बावजूद एक चीज़ अडिग रही – लोगों की आस्था। यही वजह थी कि आपदा के कुछ ही महीनों बाद, अक्टूबर 2013 में मैंने केदारनाथ यात्रा करने का निर्णय लिया। यह यात्रा मेरे लिए सिर्फ तीर्थयात्रा नहीं थी, बल्कि आत्मा को झकझोर देने वाला अनुभव भी बनी।
बद्रीनाथ से शुरुआत
9 अक्टूबर 2013 की सुबह मैंने बद्रीनाथ धाम से अपनी यात्रा शुरू की। बद्रीनाथ के नज़दीक स्थित तप्तकुंड में स्नान करने के बाद, मैंने भगवान बद्रीनाथ के दर्शन किए। उस समय चारों ओर हल्की ठंड और घाटी में बहती अलकनंदा की कल-कल ध्वनि एक अद्भुत शांति दे रही थी। दर्शन के बाद मैंने जोशीमठ जाने का निश्चय किया और सौभाग्य से मुझे वहीं से बस मिल गई।
रास्ते में गोविंदघाट के पास एक लैंडस्लाइड हो गया, जिससे हमें करीब एक घंटे तक रुकना पड़ा। पहाड़ों में सफर करते समय यह रुकावटें आम हैं, लेकिन 2013 की त्रासदी के बाद इनका डर और भी बढ़ गया था।
जोशीमठ से चमोली और आगे की योजना
जोशीमठ पहुंचने पर मैंने तुरंत चमोली जाने वाली बस पकड़ ली। चमोली, अलकनंदा नदी के किनारे बसा एक बेहद सुंदर जिला है, जिसे देवभूमि का रत्न कहा जा सकता है। यहां से केदारनाथ जाने के दो रास्ते थे –
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चोपता – ऊखीमठ होते हुए
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रुद्रप्रयाग – अगस्त्यमुनि – गुप्तकाशी होते हुए
मैंने रुद्रप्रयाग वाले रास्ते का चयन किया, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
गोपेश्वर से गुप्तकाशी – सुनसान और खतरनाक सफर
चमोली से रुद्रप्रयाग का रास्ता लैंडस्लाइड की वजह से बंद था, इसलिए मुझे गोपेश्वर से एक निजी गाड़ी किराए पर लेनी पड़ी। यह सफर बेहद खतरनाक और सुनसान था। रास्ते में चोपता आया – जिसे "मिनी स्विट्ज़रलैंड" भी कहा जाता है। यहीं से प्रसिद्ध तुंगनाथ मंदिर और चंद्रशिला ट्रेक शुरू होते हैं।
चोपता से खड़े होकर मैंने गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, चौखम्बा और नंदादेवी जैसी हिमालय की चोटियों को निहारा। इन बर्फीली चोटियों को देख मन श्रद्धा और विस्मय से भर गया।
गुप्तकाशी में औपचारिकताएं
गुप्तकाशी पहुंचते ही सबसे पहले मैंने मेडिकल फिटनेस प्रमाण पत्र बनवाया और केदारनाथ यात्रा के लिए अनुमति पत्र लिया। यह नियम 2013 की त्रासदी के बाद अनिवार्य कर दिया गया था, ताकि यात्री सुरक्षित रहें और जरूरत पड़ने पर उनकी पहचान और स्वास्थ्य की जानकारी मिल सके।
सोनप्रयाग तक का सफर
अगले दिन सुबह-सुबह मैं गुप्तकाशी से सोनप्रयाग के लिए रवाना हुआ। सोनप्रयाग से आगे का सफर सिर्फ पैदल या खच्चर से ही किया जा सकता था। यहां पहुंचकर पहाड़ों की ठंडी हवा और मंदाकिनी नदी का बहाव दिल को छू रहा था, लेकिन 2013 की विभीषिका के निशान अब भी साफ दिख रहे थे।
गौरीकुंड – तबाही का गवाह
सोनप्रयाग से गौरीकुंड तक का रास्ता पथरीला और फिसलन भरा था। गौरीकुंड 2013 की आपदा में लगभग पूरी तरह तबाह हो चुका था। पहले जहां तीर्थयात्रियों के लिए सैकड़ों लॉज और दुकानें हुआ करती थीं, वहां अब बस कुछ ही दुकानें और ढांचे बचे थे।
गौरीकुंड का महत्व सिर्फ केदारनाथ यात्रा के शुरुआती पड़ाव के रूप में ही नहीं, बल्कि गौरी देवी के मंदिर और गर्म पानी के कुंड के कारण भी है। लेकिन उस समय यहां की चहल-पहल गायब थी और वातावरण में उदासी और खामोशी फैली हुई थी।
गौरीकुंड से केदारनाथ – मौत से मुठभेड़ जैसा सफर
गौरीकुंड से केदारनाथ तक का रास्ता आपदा के बाद पूरी तरह बदल गया था। कई जगह रास्ता टूटा हुआ था, जगह-जगह मलबा और टूटे पुल थे। स्थानीय प्रशासन और सेना ने अस्थायी रास्ते बनाए थे, लेकिन पैदल यात्रा बेहद कठिन थी।
जैसे-जैसे मैं ऊंचाई की ओर बढ़ता, सांसें तेज हो जातीं और शरीर थकान से भर जाता। रास्ते में कई जगह ऐसी थीं जहां गहरी खाई बस एक कदम दूर थी। लेकिन हिमालय की ठंडी हवाएं और मंदिर के दर्शन की आस हर दर्द को हल्का कर देती थीं।
केदारनाथ – आस्था की अडिग मिसाल
जब मैं केदारनाथ पहुंचा, तो सबसे पहले मेरी नजर मंदिर पर पड़ी। आश्चर्यजनक रूप से, भीषण आपदा के बावजूद भगवान शिव का मंदिर पूरी तरह सुरक्षित था। लेकिन इसके आसपास का दृश्य बेहद दर्दनाक था – चारों ओर मलबे के ढेर, टूटी इमारतें, और बर्बादी के निशान।
मंदिर के पीछे विशाल चट्टान खड़ी थी, जिसने आपदा के दौरान मंदिर को बचाया था। इसे देखकर महसूस हुआ कि शायद यह भी भगवान की ही कृपा थी।
केदारनाथ की विभीषिका
मंदिर के आसपास घूमते हुए मेरा दिल दहल गया। जहां पहले श्रद्धालुओं की भीड़, भजन-कीर्तन और रौनक रहती थी, वहां अब खामोशी थी। स्थानीय लोगों के घर बह चुके थे, कई परिवारों ने अपने प्रियजन खो दिए थे। यह दृश्य देखकर मेरी आंखें नम हो गईं।
वापसी का कठिन रास्ता
केदारनाथ से वापसी भी उतनी ही चुनौतीपूर्ण थी। थकान, ऊबड़-खाबड़ रास्ता और मौसम की अनिश्चितता हर कदम पर परीक्षा ले रही थी। लेकिन मन में मंदिर के दर्शन की तृप्ति और शिवभक्ति का भाव मुझे ऊर्जा देता रहा। अंततः मैं गुप्तकाशी पहुंचा, वहां से कोटद्वार, फिर निजामाबाद और बनारस होते हुए घर लौट आया।
इस यात्रा से मिले जीवन के सबक
यह यात्रा मेरे जीवन की सबसे यादगार यात्राओं में से एक रही। इससे मैंने कई गहरे सबक सीखे –
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प्रकृति की शक्ति: हमने विज्ञान और तकनीक में भले ही प्रगति की हो, लेकिन प्रकृति के सामने हम अब भी बेहद छोटे हैं।
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आस्था की मजबूती: चाहे कितनी भी बड़ी आपदा क्यों न हो, आस्था इंसान को टूटने नहीं देती।
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जीवन का मूल्य: पहाड़ों में हर कदम हमें याद दिलाता है कि जीवन कितना कीमती है और इसे सम्मान के साथ जीना चाहिए।
निष्कर्ष
2013 की केदारनाथ यात्रा मेरे लिए सिर्फ एक तीर्थयात्रा नहीं थी, बल्कि एक भावनात्मक, आध्यात्मिक और मानवीय अनुभव था। वहां की तबाही देख आंखें भर आईं, लेकिन मंदिर की अडिगता देखकर विश्वास और भी मजबूत हुआ।
जब भी मैं इस यात्रा को याद करता हूं, तो एक ही बात मन में आती है – प्रकृति भले ही विनाश कर सकती है, लेकिन आस्था पुनर्निर्माण की नींव रखती है।
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मै धुमन्तु बाबा जय सिता राम बाबा एंव राजस्थानी बाबा |
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केदारनाथ जाने का पैदल राश्त |
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केदारनाथ धाटी में बहता हुआ एक मनमोहक झरना |
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इस स्थल पर गौरी कुण्ड हुआ करता था जो अब समाप्त हो गया यही से बाबा के भक्त लोग स्नान कर के मन्दिर को जाते थे |
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यहां पर सैकडो लाशो को जलाया गया था |
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मन्दिर का नजारा 16 जुन2013 के बाद का |
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रात इसी कैम्प में गुजारना पडा था |
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54 किलो मिटर पैदल चलने के बाद मेरा जुता का नजारा |
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केदारधाटी का नजारा |
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बिच्छु धास इसे छुने के बिच्छु के डक मारने जैसा जलन होता है यह केदारधाटी में अधिक पाया जाता है |
महाप्रलय के पहले का चित्र |
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सोनप्रयाग में संगम |
चोपता में धास का मैदान उतराखण्ड में धास के मैदान को बुग्याल बोला जाता है |
चोपता से गुप्तकाशी का सुनसान राश्ता |
चोपता यही से 4 कि लो मिटर पैदल चल कर चन्द्रशिला चोटी एंव तुंगनाथ को जाया जाता था इसी स्थल से उतराखण्ड में स्थित सारी चोटी साफ नजर आती है |
सोनप्रयाग में तबाही का मंजर |
यह वायुयान 16 जुन के त्रासदी में तबाह हो गया इसे 4 व्यक्ति का मौत हो गया था |
केदारनाथ से 2 कि मी दुरी पर बना यात्रीयों के लिए कैम्प |
केदारनाथ मन्दिर के समिप त्रासदी का चित्र |
मन्दिर के पिछे जो शिला है वह पहले यहां नही था 16 जुन के त्रासदी में यह शिला आकर मन्दिर के समिप रूक गया जिससे मन्दिर सुरक्षित हो गया इस शिला का नाम दिव्य शिला रखा गया है |
बुराश का पौधा इस में फुल खिलते है मई माह में यह उतराखण्ड का राजकीय फुल है |
मन्दाकनी नदी पर बना आपातकालिन पुल इसे पार कर के जाना पडता है केदारनाथ मन्दिर के समिप |
यहां पर रामबाडा नामक स्थल था इस स्थल पर 77 दुकानं एंव लांज थे जो त्रासदी में बह गए अब यहां पर कुछ नही बचा है |
4 टिप्पणियां:
केदारनाथ मे प्रलय के बाद के फोटो देखकर सोचा जा सकता है की उस समय क्या मंजर रहा होगा.
आपने भी बडा साहसिक काम किया जो प्रलय के तुंरत बाद वहा पहुंच गए.
आपका यात्रा वृतान्त पढ कर अच्छा लगा.
केदारनाथ की तबाही के बाद का मंजर भयावह है। प्रलयोपरांत जाने की मैं भी सोच रहा था पर जा नहीं पाया। आपके वृतांत से हाल चाल मिला। इस प्रलय में मेरे परिजन भी 16 जून को केदारनाथ और गौरीकुंड के बीच में फ़ंसे थे, जो बड़ी कठिनाईयों से बच कर आ पाए। मेरा एक मित्र परिवार समेत अभी तक लापता है।
वाह घुमन्तु बाबा वैसी तबाही के बाद वहाँ जाना सचमुच बहुत साहस का कार्य है l
आप का साहस तारीफ के योग्य है.
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