रविवार, 19 अक्टूबर 2025

जीविका: गांव-गांव में जगाती उम्मीद की अलख – 18 वर्षों की एक कर्मयोग यात्रा....


संघर्ष से स्वावलंबन तक: 'जीविका'—एक कर्मयोगी की 18 साल की अविस्मरणीय यात्रा

पहला अध्याय: जब मंज़िल ने पुकारा—उम्मीद की वह किरण..



10 अक्टूबर 2007, मेरे कैलेंडर का वह निशान है, जो एक हताश युवा के जीवन में आशा की इबारत लिख गया। बाहर रेलवे, बैंक, सेना में मेरे दोस्त कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, और मैं—विभिन्न परीक्षाओं के चक्रव्यूह में उलझा—अपने भविष्य को लेकर गहरे असमंजस में था। वह दौर था जब हर विज्ञापन एक छलावा लगता था, हर परीक्षा एक चुनौती जिसे पार करना मुश्किल था।

ठीक तभी, एक विज्ञापन दिखा—जीविका (BRLPS) का। मन में सहसा उम्मीद की एक किरण कौंधी। आवेदन किया, और नियति का चमत्कार देखिए, मेरा चयन भी हो गया। यह सिर्फ एक नौकरी नहीं थी; यह मेरे जीवन का पहला बड़ा मोड़ था। तब मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा मिशन बनने जा रहा है, एक ऐसा महाकाव्य जिसकी पटकथा बिहार के गाँव-गाँव में लिखी जानी थी।

दूसरा अध्याय: अनजान धरती पर दीक्षा—आंध्र प्रदेश का 'गुरु-कुल'

चयन के बाद का अगला कदम किसी रोमांचक यात्रा से कम नहीं था। 45 दिनों के कठोर प्रशिक्षण के लिए मुझे सुदूर आंध्र प्रदेश के कुरनूल, वारंगल और खम्मम जैसे ज़िलों में भेजा गया। वह मेरे लिए 'गुरु-कुल' जैसा था।

वहां मैंने जो देखा, वह किसी जादू से कम नहीं था।

गरीबी उन्मूलन और महिला सशक्तिकरण सिर्फ कागजी नारे नहीं थे; वे Community Based Organisations (CBO) के जीवित, धड़कते मॉडल थे। गांवों की महिलाएं, जो शायद ही कभी घर की दहलीज लांघती थीं, वे अब स्वयं सहायता समूह (SHG) चला रही थीं। वे आत्मविश्वास से निर्णय ले रही थीं, अपने समुदाय की दिशा तय कर रही थीं।

उनके हाथों में बही-खाते थे, उनकी आँखों में आत्मविश्वास की चमक थी।

यह अनुभव मेरे लिए 'आँख खोल देने वाला' था। मेरे मन में एक तूफ़ान उठा—अगर आंध्र की गरीब महिलाएं यह कर सकती हैं, तो मेरे बिहार की महिलाएं क्यों नहीं? हमें बस चाहिए थी सही दिशा, सामूहिक प्रयास, और अटूट विश्वास। वह क्षण मेरे अंतर्मन में जीविका के आंदोलन की नींव डाल गया।

तीसरा अध्याय: सामुदायिक भवन में पहला मोर्चा—संघर्ष और पिता की प्रेरणा

प्रशिक्षण से लौटकर, मेरी असली अग्निपरीक्षा शुरू हुई। मुझे तीन महीने तक गांव के सामुदायिक भवन में रहकर काम करना पड़ा। वह कोई वातानुकूलित दफ्तर नहीं था। सीमित संसाधन, गांव की कच्ची परिस्थितियां, और सबसे बढ़कर—लोगों का प्रारंभिक संकोच। लोग बाहरी को शक की निगाह से देखते थे।

कई बार मन में भटकाव आता, निराशा घेरती कि क्या मैं इस पथ पर टिक पाऊँगा?

ठीक इसी दौरान, मेरे पिताजी की आवाज ने मेरा मार्गदर्शन किया। उनके शब्द आज भी मेरे दिल में गूँजते हैं:

"कोई भी कार्य मिले, तन-मन से करो। साथ ही, आगे बढ़ने के अवसरों के लिए भी प्रयास करते रहो।"

इन शब्दों ने मेरे संदेह को साहस में बदल दिया। पिताजी ने मुझे सिखाया कि यह नौकरी सिर्फ एक वेतन नहीं है, यह एक धर्म है, एक कर्मयोग है। उनकी प्रेरणा से, 12 मई 2008 को मैंने जीविका में औपचारिक रूप से योगदान दिया—यह मेरे लिए नौकरी का पहला दिन नहीं, बल्कि एक आंदोलन का हिस्सा बनने का क्षण था।

चौथा अध्याय: बिहार के रणक्षेत्र में साहसिक पड़ाव

अगले 18 वर्षों तक, मेरी यात्रा बिहार के विभिन्न ज़िलों में एक अविस्मरणीय रोडमैप पर चली—गया (बोधगया, आमस), जहानाबाद (हुलासगंज), मुजफ्फरपुर और वर्तमान में औरंगाबाद। हर जिला एक नया एडवेंचर था, हर गाँव एक नई सीख

मेरा काम एक मिशन बन चुका था, जिसके केंद्र बिंदु थे:

  • SHG का गठन और सुदृढीकरण: लाखों गरीब महिलाओं को एक अटूट धागे में पिरोकर एक मजबूत सामुदायिक ढांचा बनाना।

  • महिलाओं का दोहरी सशक्तिकरण: उन्हें केवल वित्तीय रूप से ही नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से भी इतना मजबूत बनाना कि वे हर मंच पर अपनी बात रख सकें।

  • सामुदायिक नेतृत्व का विकास: "दीदियों" को इस काबिल बनाना कि वे अपने गाँव की नेता खुद बनें।

मैंने गांवों में देखा कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी लोग बदलाव के लिए तैयार रहते हैं, उन्हें बस एक सही मार्गदर्शन और भरोसा चाहिए।

पांचवां अध्याय: ट्रेनिंग ऑफिसर की बागडोर—ज्ञान का प्रकाश

2014 में, मेरी यात्रा में एक और रोमांचक मोड़ आया। मुझे मुजफ्फरपुर में प्रशिक्षण अधिकारी की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली। यह मेरे करियर का एक क्वांटम लीप था।

अब मेरा काम सिर्फ स्वयं कार्य करना नहीं था, बल्कि हजारों 'दीदियों' और फील्ड कर्मियों को प्रशिक्षित करना था। मेरी भूमिका अब सिर्फ काम करने वाले की नहीं, बल्कि हजारों बदलाव करने वालों के गुरु की थी।

प्रशिक्षण मेरे लिए केवल जानकारी देने का साधन नहीं रहा, बल्कि यह सोच और दृष्टिकोण को बदलने का माध्यम बन गया। मैं आज भी औरंगाबाद में यही प्रयास करता हूँ कि हर प्रशिक्षण एक औपचारिकता न हो, बल्कि हर प्रतिभागी के जीवन में एक वास्तविक परिवर्तन का कारण बने।

छठा अध्याय: एक जनांदोलन की झांकी

जीविका सिर्फ एक सरकारी योजना नहीं है—यह एक जनांदोलन है, एक सामूहिक चेतना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण गरीबी को मिटाकर, महिलाओं को वित्तीय, सामाजिक और मानसिक रूप से सशक्त कर, उन्हें अपने जीवन के निर्णय खुद लेने में सक्षम बनाना है।

पिछले 17 वर्षों में हमने क्या-क्या किया, यह किसी महाकाव्य के अध्याय से कम नहीं है:

  1. वित्तीय समावेशन: लाखों दीदियों को बैंक लिंकेज, आंतरिक ऋण और वित्तीय साक्षरता से जोड़कर आर्थिक स्वतंत्रता दी।

  2. सामुदायिक संस्थाओं का निर्माण: ग्राम संगठन, क्लस्टर लेवल फेडरेशन (CLF) बनाकर, दीदियों को अपनी संस्थाओं का मालिक बनाया।

  3. आजिविका का संवर्धन: खेती, पशुपालन, लघु व्यवसाय और किचन गार्डनिंग को बढ़ावा देकर, उन्हें उद्यमी बनाया।

  4. सामाजिक विकास: स्वास्थ्य, पोषण और स्वच्छता पर जागरूकता फैलाकर जीवन की गुणवत्ता सुधारी।

और हाँ, 2018 में शुरू हुई सतत जीविकोपार्जन योजना (SJY) ने तो अत्यधिक गरीब परिवारों के जीवन में सचमुच नई रोशनी डाली। यह केवल आय बढ़ाने की योजना नहीं थी, यह उन्हें गरिमा और आत्मसम्मान के साथ जीने की दिशा थी।

सातवाँ अध्याय: मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि—कर्मयोग का सार

इन 17 वर्षों की साहसिक यात्रा ने मुझे जीवन के कुछ सबसे बड़े सूत्र सिखाए:

  • विश्वास सबसे बड़ा बदलाव लाता है: जब किसी को उसकी क्षमता पर भरोसा होता है, तो वह असंभव को भी संभव कर देता है।

  • समुदाय की शक्ति अपार है: SHG की महिलाएं मिलकर समाज की सोच को बदल सकती हैं।

  • प्रशिक्षण जीवन बदल सकता है: सही समय पर दी गई सही सीख, पूरी जिंदगी का रास्ता बदल देती है।

जीविका में बिताए गए ये साल मेरे लिए सिर्फ 'नौकरी' नहीं थे—यह मेरा कर्मयोग था। मेरा नाम किसी बड़ी किताब में छपे, न छपे, कोई बात नहीं।

लेकिन, हर बार जब मैं किसी ग्रामीण महिला को आत्मविश्वास से बोलते देखता हूँ, किसी किसान को अपने उत्पाद बाजार में बेचते देखता हूँ, या किसी नवयुवक को स्वरोजगार करते देखता हूँ—तो मेरे अंतर्मन से आवाज़ आती है:

"हाँ, मेरा जीवन सार्थक है।"

जीविका मेरे लिए केवल संस्था नहीं है, बल्कि यह गाँव-गाँव में जाग रही उम्मीद की चेतना है। 12 मई 2008 से आज तक की मेरी यात्रा एक विचार से शुरू हुई थी, जो अब मेरा जीवन बन चुकी है।


लेख से संबंधित रोचक सवाल (Adventurous Question)

जीविका के इस 18 वर्षीय सफर में, आपको सबसे बड़ा प्रशासनिक एडवेंचर किस चुनौती को सुलझाने में महसूस हुआ, जब ग्रामीण महिलाओं के समूह (SHG) ने किसी स्थानीय सामाजिक बुराई (जैसे: शराबबंदी या दहेज) के खिलाफ गाँव में एक अभूतपूर्व सामूहिक निर्णय लिया? उस घटना का संक्षिप्त सार क्या था?