हर साल की तरह, इस बार भी मन में एक ही संकल्प था – इस दशहरे पर परिवार संग एक लम्बी धार्मिक यात्रा पर निकलना है। माँ विंध्यवासिनी, काशी विश्वनाथ और राम लला की नगरी अयोध्या का बुलावा काफी समय से था। योजनाएँ बनीं, मन में उत्साह की लहरें उठीं, लेकिन दफ्तर के काम की बेड़ियों ने छुट्टी मिलने नहीं दी। दशहरा बीत गया, और मन मसोस कर रह गया। पर कहते हैं ना, जब भगवान बुलाते हैं तो रास्ता अपने आप बन जाता है। दिवाली का समय नज़दीक था, और इस बार मैंने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, यह यात्रा पूरी करनी है।
और फिर, वह शुभ दिन आया – 18 अक्टूबर, 2025, दिन शनिवार।
बिहार के औरंगाबाद से हम चार यात्री – मैं, मेरी जीवनसंगिनी, और हमारे प्यारे बच्चे डुग्गू और पुच्चु – अपने पहले पड़ाव, विंध्याचल के लिए तैयार थे। दोपहर 3:00 बजे 'महाबोधि एक्सप्रेस' की लम्बी सीटी ने हमारे रोमांचक सफर का आगाज़ किया। ट्रेन की खट-खट और बच्चों की किलकारियों के बीच, हमने लगभग 3 घंटे का सफर तय किया। यह सफर सिर्फ दूरी का नहीं था, बल्कि रोज़मर्रा की भाग-दौड़ से आध्यात्मिक शांति की ओर एक पलायन था।
शाम के ठीक 6:00 बजे, ट्रेन ने हमें विंध्याचल के स्टेशन पर उतार दिया। स्टेशन से मंदिर धाम की दूरी लगभग 2 किलोमीटर थी। हवा में एक अलग सी सुगंध थी – गंगा की शीतलता और धूप-दीप की महक का मिश्रण, जो तुरंत मन को शांत कर देता है।
एक छोटे से रिक्शे में सामान लादे, हम पहुंचे विंध्याचल धाम। यहाँ सैकड़ों की संख्या में धर्मशालाएं और होटल हैं, जो 500 रुपए से लेकर 5000 रुपए तक के किराये पर आसानी से मिल जाते हैं। हमने भी मंदिर के पास ही एक धर्मशाला, जिसका नाम यात्री निवास था, 500 रुपए के किराए में कमरा ले लिया। यह स्थान बेहद आरामदायक और सुविधापूर्ण था।
कमरे में आते ही, बच्चों ने सामान फैलाया और हमने तुरंत खुद को तरोताज़ा किया। दिन भर की यात्रा की थकान गायब हो गई और माँ के दर्शन का उत्साह चरम पर था।
शाम के 7:00 बजे, हम मंदिर की ओर निकले। विंध्याचल को 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है, ऐसा स्थान जहाँ देवी सती के शरीर का अंग गिरा था। यह एक पवित्र त्रिकोण (Triangle) का केंद्र भी है, जिसमें माँ विंध्यवासिनी (केंद्र), माँ काली (पूर्व) और माँ अष्टभुजा (पश्चिम) के दर्शन किए जाते हैं।
जैसे-जैसे हम मंदिर के मुख्य द्वार की ओर बढ़े, भक्तों का एक विशाल, ऊर्जावान जनसैलाब हमें अपनी ओर खींचता गया। 7:00 बजे के बाद यहाँ की भीड़ अपने चरम पर होती है। यह भीड़ कोई सामान्य भीड़ नहीं थी, यह हर कोने से आए कृष्ण प्रेमियों की भीड़ थी जो अपनी मनोकामनाओं को लेकर आए थे।
भीड़ के बीच से गुजरना अपने आप में एक मिनी-एडवेंचर था। बच्चों को गोद में थामे, पत्नी का हाथ पकड़े, हम धीरे-धीरे गर्भगृह की ओर बढ़े। सुरक्षा घेरे के बावजूद, हर भक्त माँ का एक झलक पाने को बेचैन था।
जब सामने माँ विंध्यवासिनी की भव्य, शांत मूर्ति दिखी, तो मन एकदम स्तब्ध हो गया। वह पल ऐसा था, मानो सारी इच्छाएँ और चिंताएँ एक पल में विलीन हो गईं। माँ की आँखों में असीम करुणा थी। हमने हाथ जोड़कर उनका आशीर्वाद लिया।
एवं हमने मंदिर परिसर में थोड़ी देर सैर की। विंध्याचल में दशहरे के समय तो मानो तिल रखने की भी जगह नहीं होती है। यह वह समय होता है जब माँ का विशेष श्रृंगार किया जाता है, और दूर-दूर से श्रद्धालु अपनी-अपनी विशेष पूजा-पाठ करने आते हैं, जिनकी मनोकामनाएँ पूरी हुई होती हैं। हमने देखा कि पूरे साल यहाँ तीर्थयात्री आते रहते हैं, लेकिन दशहरे की ऊर्जा और भीड़ का मुकाबला नहीं।
दर्शन और पूजा-आरती के बाद पेट पूजा का समय था। मंदिर के पास ही पांडे जी का होटल था, जहाँ हमने रात्रि का भोजन किया। सच कहूँ तो, खाने का स्वाद अद्भुत था – सादा, ताज़ा, और बहुत ही स्वादिष्ट! पर खाने से भी ज़्यादा अच्छा था पांडे जी का व्यवहार। उनकी विनम्रता और अपनत्व से हमारा मन गदगद हो गया।
पेट भर कर और मन को तृप्त करके, रात के 9:00 बजे हम अपने धर्मशाला वापस लौटे और सुकून की नींद ली।
अगले दिन की शुरुआत 5:30 बजे हुई। एक नई ताजगी और उत्साह के साथ हम तैयार हुए।
विंध्याचल मंदिर के समीप ही पतित-पावनी गंगा नदी बहती है। डुग्गू और पुच्छु का हाथ थामे हम गंगा घाट की ओर बढ़े। सुबह का वातावरण शांत और निर्मल था। गंगा का स्पर्श लेते ही, एक अद्भुत ऊर्जा का संचार हुआ।
गंगा स्नान के बाद, हम वापस मंदिर पहुँचे और 6:00 बजे की सुबह की आरती में भाग लिया। सुबह की आरती का दृश्य सचमुच अलौकिक था। ढोल, नगाड़े, घंटे और शंख की ध्वनि से पूरा वातावरण गूँज रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे हम किसी और ही दुनिया में आ गए हैं। इस समय की पूजा-पाठ और दृश्य शांतिदायक और मनोरम था। बच्चों ने भी पूरी श्रद्धा से हाथ जोड़े।
बच्चों ने पास की दुकान से खिलौने लिए। हर यात्रा का एक छोटा लेकिन ज़रूरी हिस्सा होता है।
इसके बाद सुबह का नाश्ता भी हमने मंदिर के नज़दीक ही किया, और अब समय था अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़ने का।
तकरीबन 10:00 बजे, हमने बनारस (वाराणसी) के लिए बस पकड़ी। माँ विंध्यवासिनी का आशीर्वाद हमारे साथ था, और मन में काशी विश्वनाथ के दर्शन की उत्सुकता लिए हम बनारस की ओर रवाना हो गए।
यह यात्रा सिर्फ धार्मिक नहीं थी, बल्कि यह हमारे परिवार के लिए एक ऐसा एडवेंचर था जहाँ हमें भारतीय संस्कृति की शक्ति, धार्मिक एकता और प्रेम का अनुभव हुआ। विंध्याचल का यह सफर हमेशा हमारी यादों में एक उज्जवल स्थान रखेगा।
प्रश्न:
विंध्याचल धाम को किन तीन प्रमुख देवियों के मंदिरों के पवित्र त्रिकोण का केंद्र माना जाता है, और यह किस प्रमुख धार्मिक घटना से संबंधित 51 शक्तिपीठों में से एक है?
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