शक्ति की देवी माँ विंध्यवासिनी के भव्य दर्शन और सुबह की निर्मल आरती में शामिल होने के बाद, हम अपने अगले पड़ाव – भगवान शिव की नगरी, काशी – की ओर अग्रसर थे। यह यात्रा सिर्फ किलोमीटरों की नहीं, बल्कि आध्यात्म के एक नए आयाम की ओर बढ़ना था।
सुबह के 10:00 बजे थे जब हमने विंध्याचल से बनारस के लिए बस पकड़ी। विंध्याचल से बनारस की दूरी महज़ 60 किलोमीटर है और प्रति व्यक्ति किराया ₹100। उत्तर प्रदेश की सड़कों पर सरपट भागती बस ने हमें दो घंटे के भीतर ही शिव की नगरी के द्वार पर ला खड़ा किया।
ठीक दोपहर 12:00 बजे, 19 अक्टूबर 2025 (दीपावली का दिन), हम बनारस की ऊर्जा में गोता लगा चुके थे। स्टेशन से निकलकर हमने सबसे पहले एक धर्मशाला का रुख किया। शहर की भाग-दौड़ और दीपावली की भीड़ के बीच, धर्मशाला में स्नान और थोड़ा विश्राम किसी अमृत से कम नहीं था। बच्चों डुग्गू और पुच्छु (दिव्यांशु और प्रियांशु) को भी इस दो घंटे के आराम की सख्त ज़रूरत थी।
दोपहर 2:00 बजे, हमने विश्वनाथ मंदिर और घाटों की ओर पैदल ही प्रस्थान किया। धर्मशाला से मंदिर तक की लगभग 2 किलोमीटर की यह यात्रा हमारे बनारस एडवेंचर का पहला अध्याय थी। दीपावली के कारण शहर में असाधारण भीड़ थी। सड़कों पर पैदल चलना भी किसी चुनौती से कम नहीं था – हर तरफ़ इंसान, रिक्शा, और मोटरसाइकिलें, जो यह दर्शाती थीं कि हम दुनिया के सबसे पुराने जीवित शहर के हृदय में हैं।
मंदिर के समीप ही गंगा के दर्जनों घाटों की श्रृंखला शुरू होती है। ये घाट बनारस की पहचान हैं, उसकी आत्मा हैं। हम पैदल चलते हुए एक घाट पर जा बैठे।
बनारस में 80 से अधिक घाट हैं, और हर घाट की अपनी एक कहानी है, अपना एक इतिहास है। हम सभी के मन में एक ही सवाल था: ये अनगिनत घाट कब और कैसे बने?
दरअसल, बनारस के अधिकांश घाटों का निर्माण 18वीं शताब्दी में मराठा साम्राज्य और स्थानीय राजाओं द्वारा किया गया था। मराठा शासकों, विशेष रूप से इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर और पेशवाओं ने, इन घाटों के पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये घाट केवल स्नान या पूजा के लिए नहीं, बल्कि जीवन के उत्सव और अंतिम संस्कार दोनों के लिए हैं, जो इस शहर को "मोक्ष की नगरी" का दर्जा देते हैं।
हम मान सिंह घाट पर लगभग 20 मिनट तक रुके। गंगा की शांत धारा, सामने तैरती नावें, और दूर होती शाम की रोशनी... यह दृश्य अविस्मरणीय था। घाट सालों भर खूबसूरत रहते हैं। यहाँ बैठ कर गंगा को देखना, लोगों को वोटिंग (नौका विहार) का आनंद लेते हुए देखना और शाम में होने वाली भव्य गंगा आरती (जिसे देखने के लिए हम देर शाम लौटेंगे) की प्रतीक्षा करना, बनारस के अनुभव का सार है।
दिव्यांशु, प्रियांशु और हम पति-पत्नी ने मिलकर गंगा किनारे खूब मस्ती की, पत्थरों पर बैठे, और शहर के इस जीवंत दृश्य का आनंद लिया।
काशी विश्वनाथ: भीड़ में छिपा दैवीय अनुभव
घाटों का भ्रमण करने के बाद, हम विश्वनाथ मंदिर की ओर चल पड़े। यह मंदिर घाटों के बेहद नज़दीक है, लेकिन मंदिर तक पहुँचने का रास्ता उन संकरी, भूल-भुलैया जैसी गलियों से होकर जाता है जो बनारस को उसका असली एडवेंचर वाला स्वरूप देती हैं।
पैदल गलियों से चलते हुए हम विश्वनाथ धाम पहुँचे। दीपावली होने के कारण मंदिर में दर्शनार्थियों की लंबी कतार लगी थी। यह कतार सिर्फ़ उत्तर भारतीयों की नहीं थी; हमने देखा कि दर्शनार्थियों में दक्षिण भारत से आए लोगों की संख्या बहुत अधिक थी। उनकी श्रद्धा और शांतिपूर्ण इंतज़ार ने हमें भी प्रभावित किया।
कतार में लगभग दो घंटे बिताने के बाद, हमें शिव के ज्योतिर्लिंग के दर्शन का सौभाग्य मिला। मंदिर के अंदर की ऊर्जा इतनी सकारात्मक और तीव्र थी कि भीड़ की सारी परेशानी पल भर में दूर हो गई। हमने यहाँ के भाव आरती का मज़ा लिया और तकरीबन दो घंटे का समय पवित्र परिसर में बिताया।
आधुनिकता का स्पर्श: मंदिर परिसर में VR
एक रोचक बात जो हमने मंदिर के कैंपस में देखी, वह थी VR (वर्चुअल रियलिटी) की सुविधा। यह टेक्नोलॉजी उन लोगों को मंदिर का एक विस्तृत और 360-डिग्री दर्शन कराती है जो शायद भीड़ के कारण या शारीरिक अक्षमता के चलते गर्भगृह तक नहीं पहुँच पाते हैं। यह 21वीं सदी के बनारस की पहचान है – जहाँ प्राचीनतम आस्था, आधुनिकतम तकनीक को गले लगाती है। यह अनुभव ऐसा लगता है मानो सारी चीज़ें हमारे पास ही हों।
दर्शन और आरती-मंगल के पश्चात, हम बनारस की उन विश्व-प्रसिद्ध गलियों में निकल पड़े जहाँ कदम-कदम पर कोई न कोई आश्चर्य आपका इंतज़ार करता है।
यह गलियाँ किसी एडवेंचर से कम नहीं हैं। ये इतनी संकरी हैं कि एक व्यक्ति मुश्किल से निकल पाए, और इनमें अचानक एक तरफ़ प्राचीन मंदिर नज़र आता है, तो दूसरी तरफ़ गरमागरम पकवानों की दुकान। गायों का आना-जाना, मंदिरों में गूँजती घंटियाँ, और पकवानों की खुशबू – ये सब मिलकर एक अद्भुत, अविस्मरणीय संवेदी अनुभव देते हैं।
इन गलियों में छोटे-बड़े, सस्ते-महंगे, हर प्रकार के होटल और ठहरने तथा खाने-पीने की व्यवस्थाएँ हैं। गोलगप्पे, गरमागरम जलेबी-दूध, और बनारस के प्रसिद्ध पान की दुकानें हर नुक्कड़ पर मिल जाती हैं।
भूख लग चुकी थी। मंदिर के समीप ही एक रेस्टोरेंट में हम रुके, जहाँ हमने गर्मागर्म डोसा खाया और चाय की चुस्कियों का आनंद लिया। बच्चों ने तो डोसे और चाय का खूब मज़ा लिया।
शाम को हम गडोलीया चौक पहुँचे, जो बनारस की भाग-दौड़ का केंद्र बिंदु है। यहाँ की रौनक और भीड़ देखने लायक थी। हमने प्रेम से गोलगप्पे खाए (जिसके बिना बनारस की यात्रा अधूरी है) और फिर देर रात अपना रात्रि भोजन किया।
रात्रि में इन गलियों और चौकों में घूमने का अपना ही मज़ा है – यह शहर रात को भी जागता रहता है, जीवन के अलग-अलग रंग दिखाता रहता है। रात के 9:00 बजे, हम थके-हारे पर संतुष्ट मन से अपने धर्मशाला पहुँचे और रात्रि विश्राम किया।
यह हमारा बनारस में सिर्फ़ एक दिन था, पर यह एक दिन बनारस के जीवन, धर्म और एडवेंचर को समझने के लिए काफ़ी था।
अगले दिन सुबह 21 अक्टूबर (सोमवार) को 6:00 बजे, हमने बनारस-अयोध्या इंटरसिटी एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ी और अपनी यात्रा के तीसरे और अंतिम पड़ाव – प्रभु श्री राम की नगरी अयोध्या – के लिए रवाना हो गए।
काशी का यह अनुभव हमारे दिल में हमेशा के लिए अंकित हो गया। यहाँ की गलियाँ, घाट, और विश्वनाथ की भव्यता – सब कुछ जीवन के शाश्वत सत्य को दर्शाते हैं।
सवाल:
बनारस (काशी) के घाटों की श्रृंखला, जो इस शहर की मुख्य पहचान है, का निर्माण मुख्य रूप से किस 18वीं शताब्दी के साम्राज्य और उसकी एक प्रसिद्ध महारानी द्वारा करवाया गया था?
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